छह दिसंबर 1992 को अयोध्या की ‘आंखों देखी’ हाल

। दो दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है। लेकिन कुछ बातें जेहन में ऐसे बैठ जाती हैं जो हमेशा याद रहती हैं। आप उसे भुलाना भी चाहें तब भी ये मुमकिन नहीं होता। 6 दिसंबर 1992 का दिन भी कुछ ऐसा ही है। आज यह लड़ाई लड़ी जा रही है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की विवादास्पद 2.77 एकड़ भूमि पर मालिकाना हक किसका है। हालांकि 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस भूमि को हिंदू, मुसलमान और निर्मोही अखाड़े में बांटने का फैसला सुनाया था लेकिन इस फैसले से कोई भी पक्ष खुश नहीं था और अब मामला सर्वोच्च न्यायालय में है।
जिस दिन फैसला आना था, अयोध्या के लोग यही दुआ मांग रहे थे कि बस फैसला आ जाए। इतनी कड़ी सुरक्षा उन्हें कैद में होने का अहसास कराती रही है। लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। गाहे-बगाहे जब भी मंदिर बनाने की बात होती है, वहां सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी जाती है। जब भी अयोध्या जाता हूं, यही सुनने को मिलता है कि रामलला के साथ हम भी कैद में हैं। आज भी वो विवादित परिसर पूरी तरह से केंद्र सरकार के कड़े सुरक्षा घेरे में है। सरकार किसी भी चूक के लिए तैयार नहीं है। अगर 22 साल पहले यही मुस्तैदी दिखाई होती तो शायद यह नौबत नहीं आती।
कोई नहीं भांप पाया कारसेवकों के इरादे
आज भी वो दिन मुझे पूरी तरह से याद है। मैं उन दिनों देश के पहले वीडियो मैगजीन न्यूजट्रैक में रिपोर्टर था। 21 नवंबर 1992 को मुझे अयोध्या जाने को कहा गया। 6 दिसंबर को कारसेवकों ने रामजन्म भूमि पर कार सेवा का ऐलान किया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने विवादित राम जन्मभूमि पर किसी तरह के निर्माण कार्य पर पाबंदी लगा रखी थी और एक ऑबजर्वर भी नियुक्त कर रखा था। तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी सुप्रीम कोर्ट को कहा था कि उसके आदेशों का उल्लंघन नहीं होगा।
मैं अपनी टीम के साथ 22 नवंबर 1992 को अयोध्या पहुंचा। कारसेवकों का जत्था धीरे-धीरे पहुंचने लगा था। शाम के वक्त मैं अयोध्या में कारसेवक पुरम में जाकर वहां का जायजा लेता था। लोगों से मिलता था, बातें करता था। हर दिन विवादित परिसर से कुछ दूर राम चबूतरा पर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के नेता कारसेवकों से रूबरू होते, भाषण होते लेकिन इस वक्त तक ये आभास भी नहीं था कि इन कारसेवकों के इरादे इस बार कुछ करके दिखाने के हैं।
30 नवंबर से बनने लगी थी भूमिका
30 नवंबर से अयोध्या पहुंचने वाले कारसेवकों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही उनके तेवर भी कड़े होने लगे। इसका अहसास उनके नारों और नेताओं के भाषण से मिलने लगा। कारसेवकपुरम में आरएसएस, बजरंग दल के नेताओं की लगातार जारी मुलाकात से संकेत मिलने लगे थे कि इस बार मामला आर-पार की लड़ाई का है। कुछ कारसेवकों का ये कहना था कि हर बार की तरह इस बार वे खाली हाथ नहीं जाएंगे और इस बार तो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी उन्हीं के आदमी हैं। सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का।
2 दिसंबर 1992 को मैंने अपनी एडिटर मधु त्रेहन से कहा कि एक और कैमरा टीम की जरूरत है लेकिन उनका कहना था कि भीड़ देखकर मैं चकरा गया हूं। इसबीच भाषणों के बोल तीखे हो चले थे। वीएचपी नेता आचार्य धर्मेंद्र ने तो साफ-साफ कहा कि अपमान के इस खंडहर को हर हाल में गिराना होगा। अशोक सिंघल ने कहा कि प्रधानमंत्री नरसिंहा राव को दूसरा बाबर नहीं बनने दिया जाएगा। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारा कोर्ट से कोई मतलब नहीं है। आप कोर्ट (सुप्रीम कोर्ट) की बात बीच में क्यों ला रहे हैं।
ढांचा गिराने का किया गया था रिहर्सल
हालांकि वीएचपी, बजरंग दल की घोषणा तो ये थी कि 6 दिसंबर को 2 लाख कारसेवक सरयू नदी से एक-एक मुट्ठी बालू लाकर विवादित 2.77 एकड़ में बने गड्ढे को भरेंगे लेकिन कारसेवकों के इरादे कुछ और थे। 4 दिसंबर 1992 को उनका नारा था - मिट्टी नहीं सरकाएंगे, ढांचा तोड़कर जाएंगे। उसी दिन राम चबूतरा के पास एक बड़े से टीले पर काफी सारे कारसेवक चढ़ गए। सारे के सारे रस्सियों, खुदाल और फावड़े से लैस होकर उसे ढहाने की कोशिश कर रहे थे। यह पहला संकेत था कि किस तरह बाबरी मस्जिद को गिराने का अभ्यास किया जा रहा है।
शाम को कारसेवकपुरम में काफी गहमा-गहमी थी। हर कारसेवक सिर्फ यही कह रहा था कि इस बार बाबरी मस्जिद को गिराकर ही जाना है। 5 दिसंबर 1992 को ये पता चला कि अगले दिन यानि 6 दिसंबर की पूरी योजना बन चुकी है। मैंने अपनी एडिटर से एक बार फिर बात की लेकिन वो अब भी तैयार नहीं थीं। आखिरकार मैंने कहा कि अतिरिक्त टीम भेजने का खर्च आप मेरी तनख्वाह से काट लें लेकिन भेजें जरूर। उनका जवाब था-तुम्हारी तनख्वाह है ही कितनी। लेकिन कुछ देर बाद ही वो मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी के साथ टीम भेजने को तैयार हो गईं।
5 दिसंबर की शाम तक यह बात तय हो चुकी थी कि इस बार कारसेवकों के इरादे खतरनाक हैं। अगर पता नहीं था तो ये कि

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